टीम चैतन्य भारत। त्यौहार हो या धार्मिक आयोजन, प्रवचन हो या कथा श्रवण का पुण्य काम, भारतीय धर्म और आध्यात्म में हर जगह दान की महिमा बताई गई है। किसी भी धार्मिक आयोजन की पूर्णता की आवश्यकता है दान। सिर्फ हिंदू ही नहीं हर धर्म में दान का महत्व बताया गया है। शास्त्रों में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनमें बताया गया है कि जो दुख में पड़े व्यक्ति की सहायता नहीं करता वह कितना भी यज्ञ, जप, तप, योग आदि करे उसे स्वर्ग या सुख नहीं प्राप्त होता। दान ईश्वर की प्रसन्नता का प्रमुख कारण है। अत: ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, अपने को उत्कृष्ट बनाने के लिए और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरतमंदों की सहायता करना हर अच्छे मनुष्य से अपेक्षित है।
दान का अर्थ “देयता” से है। अपनी दिव्यता एवं श्रेष्ठता के अनुरूप कामनारहित होकर परोपकार की भावना से समय एवं आवश्यकतानुसार द्रव्य, पदार्थ, भाव, धन, गुण, पुण्य, विचार, और वचन को निर्लिप्त भाव से देना “दान” है।
धार्मिक ग्रंथों में व्यक्ति के लिए सामर्थ्य के अनुसार दान देने की बात कही गयी है। ऋग्वेद् में कहा गया है- जो न धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है, न मित्र को देता है, वह अकेला भोजन करने वाला केवल पाप को ही खाता है।
हिंदू धर्म में लगभग हर त्यौहार में दान का विशेष महत्व है जैसे- मकर संक्रांति, शिवरात्रि, होली, नवरात्रि, अक्षय तृतीया, ऋषि पंचमी, श्राद्धपक्ष, जन्माष्टमी, दीपावली, दशहरा के अलावा हर महीने आने वाली अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी और ग्रहण काल में दान को धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायी माना गया है|
कहा जाता है कि इस संसार में परमात्मा सबसे बड़े दानी हैं, कथा-पुराणों में अनेक बार दान की महिमा कही गई है| दान का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यह व्यक्ति के अहम् या इगो को कम करता है।
सामाजिक व्यवस्था में भी दान बहुत जरूरी
मान्यता है कि जिस व्यक्ति में या समाज में दान की भावना नहीं होती उसे सभ्य नहीं कहा जाता। उसकी निंदा होती है और उसका पतन होता है क्योंकि समाज में सुखी-दुखी, और संपन्न-विपन्न दोनों तरह के लोग होते हैं। सभी को कभी न कभी सहयोग की जरूरत होती है इसलिए समाज के अस्तित्व और प्रगति के लिए सहयोग आवश्यक है। दान करते समय व्यक्ति के मन में, अहं का, पुण्य कमाने का या अहसान करने का भाव कदापि नहीं होना चाहिए। दानदाता को तो उस व्यक्ति का कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने सद्भाव जगाकर उस पर उपकार किया। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए कि उसने कुछ देने के योग्य बनाया।
दान के महत्व को रेखांकित करने वाली एक पौराणिक कथा इस तरह है-
जब सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को ही दान कर दिया!
भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूपसौंदर्य एवं ऐश्वर्य पर बड़ा गर्व था| उनके पास दिव्य रत्नों का भंडार था जो देवताओं को भी दुर्लभ थे| उन्हें लगता था कि रूपवती एवं ऐश्वर्यवान होने के कारण ही श्रीकृष्ण उनसे अधिक प्रेम करते हैं, इसलिए उन्होंने नारदजी से कहा कि आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों !
नारदजी बोले- तो इस जन्म में आपको अपनी सबसे प्रिय वस्तु “दान” करना होगी। … अगर आपके सबसे प्रिय श्रीकृष्ण ही हैं तो उन्हें मुझे दानस्वरूप दें, अगले जन्म में आपको वे जरूर मिलेंगे| सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारद मुनि को दान कर दिया| यह सोचकर कि श्रीकृष्ण पर उनका एकाधिकार है|
जब नारदजी श्रीकृष्ण को लेकर महल से जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया| सभी श्रीकृष्ण को पाना चाहती थीं। नारदजी बोले- यदि श्रीकृष्ण के बराबर रत्न प्रतिदान में दे दीजिए तभी वे वापस मिल सकते हैं|
अब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण विराजे और दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा हिला तक नहीं| अहंकारवश सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो मैं उबार भी लूंगी, उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला|
बात पटरानी रुक्मिणीजी ने सुनी तो वह तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आई| उस पत्ती को पलड़े पर रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया| सब आश्चर्य में थे कि इतने कीमती रत्न दान देने पर भी जो पलड़ा हिला तक नहीं उसे एक छोटे से तुलसी के पत्ते ने बराबर कैसे कर दिया ?
इस प्रश्न के उत्तर में रूक्मिणीजी बोलीं- निष्काम प्रेम स्वयं परमात्मा समान है, इससे बढ़कर कुछ भी नहीं। भगवान को प्राप्त करने की यही विधि है। तुलसीजी की स्व-आहुत भक्ति इसका अद्वितीय उदाहरण है। प्रभु “पदार्थ” से नहीं वरन “अंतर्निहित भाव” से प्रसन्न होते हैं, और आज जो सब आपने देखा वो इस भाव का चमत्कार है|
इस प्रकार रूक्मिणीजी के तुलसीपत्र दान देने से सत्यभामा के रूप एवं ऐश्वर्य का गर्व चूर हुआ एवं उन्होंने प्रेम के अंतरिम रहस्य को जान लिया!
हर धर्म में बताई गई है दान की महिमा
विश्व के सभी प्रमुख धर्मों में दान को महत्वपूर्ण बताया गया है जैसे इस्लाम में इसे “जकात”, ईसाई धर्म में चैरिटी और बौद्ध धर्म में “दान” कहा जाता है।
भगवदगीता में कहा गया है कि दान तीन प्रकार का होता है।
1. जो दान कुपात्र, व्यसनी को या अनादरपूर्वक या दिखावे के लिए दिया जाए वह अधम दान है।
2. जो बदले में कोई लाभ लेने या यश की आशा से कष्ट से भी दिया जाए वह दान मध्यम है।
3. जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी अहं भाव के, नि:स्वार्थ भाव से किया जाता है वही उत्तम श्रेणी में आता है।
इस्लाम में दान का महत्व
इस्लाम के पांच मूल आधार में से एक है दान या जकात। दान (जकात) एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धन मुसलमानों में बांटना अपेक्षित है। यह एक धार्मिक काम इसलिए भी है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी वास्तव में ईश्वर की देन है और दान देने से जान और माल की सुरक्षा होती है।
ईसाई धर्म में दान का महत्व
प्रभु ईसा मसीह दान को लेकर कहते हैं- याद रखो, प्रत्येक व्यक्ति को अपने मन के अनुसार दान करना चाहिए। जबरदस्ती या दबाव से नहीं। न ही किसी को दिखाते हुए या पैसे का घमंड दिखाते हुए दान करना चाहिए क्योंकि प्रभु अपनी खुशी से देने वाले से प्रेम करता है न कि अनिच्छा से देने वाले से।