चैतन्य भारत न्यूज
हमारे आसपास कई ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जो साधारण होते हुए भी असाधारण बन जाते हैं। ऐसे लोग दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत के दम पर अपने सपनों को हकीकत में बदल देते हैं। ऐसी ही कहानी है Ïदूसरों घर में काम करने वाली बाई बेबी हलदर की, जिन्होने पूरी लगन से अपनी जिंदगी को बदल दिया। लोग आज उन्हें मशहूर लेखिका के तौर पर जानते हैं। कई मुश्किलों का सामना करते हुए भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनकी अब तक चार सफल किताबें छप चुकी हैं।
बेबी हलदर की कहानी
बेबी हलदर नाम की 41 वर्षीय महिला कभी एक साधारण सी कामवाली बाई हुआ करती थीं लेकिन आज वो एक जानी मानी लेखिका हैं और गुडगांव में काम करती हैं। 13 साल की उम्र में उनकी शादी एक बड़े उम्र के आदमी से कर दी गई, 20 साल की उम्र तक उनके तीन बच्चे हो चुके थे।
उन्होंने अंतत: प्रताड़ना से भरी अपनी शादी से बाहर आने का फैसला किया और तीन बच्चों के साथ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पहुंचीं। वहां उन्हें मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार श्रीवास्तव के यहां काम मिला। श्रीवास्तव ने उन्हें लाइब्रेरी की साफ-सफाई के दौरान धूल फांकती महाश्वेता देवी और तसलीमा नसरीन की किताबों को अक्सर उलटते-पुलटते देखा।
जब भी वो प्रबोध के घर साफ-सफाई किया करती तो बुक के शेल्फ को देखने लगतीं। बंगाली किताबों को खोलकर पढ़ने लगतीं। उन्होंने बेबी को बांग्लादेशी ऑथर तसलीमा नसरीन की किताब दी और पढ़ने को कहा। पूरी किताब पढ़ने के बाद प्रबोध ने उनको खाली नोटबुक दी और अपनी कहानी लिखने को कहा। नतीजा रहा कि 2003 में उनकी आत्मकथा आलो-आंधारि का अंग्रेजी अनुवाद ‘ए लाइफ लेस ऑर्डिनरी’ नाम से प्रकाशित हुआ।
किताब इतनी पसंद की गई कि उसका 14 भाषाओं में अनुवाद हुआ। बेबी हल्दर साहित्य जगत का चर्चित नाम बन गईं। वे बुक टूर पर फ्रांस, जर्मनी और हांगकांग गईं। बाद में उनकी कुछ और किताबें- इशत रूपांतर, घोरे फेरार पथ भी आईं। बेबी प्रोफेसर प्रबोध कुमार के घर पिछले 16 सालों से काम कर रही हैं और प्रबोध कुमार ही उनके मेंटर व अनुवादक हैं।
बेबी की मानें तो एक लेखिका के रुप में उनका दूसरा जन्म हुआ है और उनकी लिखी हुई कहानी लोगों के दिलों को स्पर्श करती है। अब बेबी की यही ख्वाहिश है कि वो अपनी किताबों से कमाए हुए पैसों से कोलकाता में एक घर बना सकें। यहां वे एनजीओ ‘अपने आप विमेंस वर्ल्ड’ से जुड़ गईं। वे अब सोनागाछी जैसे क्षेत्रों में यौनकर्मियों के बच्चों को पढ़ाती हैं।
बेबी कहती है कि, ‘मैं उन्हें बांग्ला और हिंदी सिखाती हूं। कभी-कभी बच्चों की माएं भी साथ आती हैं। वे अपनी पीड़ा, अपनी कहानियां सुनाती हैं और अक्सर हमसे सलाह और मार्गदर्शन मांगती हैं। हम उन्हें सशक्त बनाने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं।’