चैतन्य भारत न्यूज
ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को भगवान शिव की विशेष पूजा की जाती है। इस दिन को महेश नवमी पर्व के रुप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस दिन ही माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए माहेश्वरी समाज इस पर्व को बड़ी ही धूमधाम के साथ मनाता है। महेश नवमी के दिन व्रत और भगवान शिव की पूजा करने का भी विधान है।
पूजन विधि
- इस दिन सुबह जल्दी उठकर नहाएं और व्रत का संकल्प लें।
- उत्तर दिशा की ओर मुंहकर के भगवान शिव की पूजा करें।
- गंध, फूल और बिल्वपत्र से भगवान शिव-पार्वती की पूजा करें।
- दूध और गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करें।
- शिवलिंग पर बिल्वपत्र, धतूरा, फूल और अन्य पूजन सामग्री चढ़ाएं।
- इस प्रकार महेश नवमी के दिन भगवान शिव का पूजन करने से साधक की हर मनोकामना पूरी होती है।
महेश नवमी की कथा
प्राचीन काल में खडगलसेन नाम के एक राजा थे। राजा के कामकाज से उनकी प्रजा बड़ी प्रसन्न थी। राजा धार्मिक प्रवृति के होने के साथ प्रजा की भलाई में रहते थे, लेकिन राजा नि:संतान होने की वजह से काफी दुखी रहते थे। एक बार राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से कामेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। यज्ञ में संत-महात्माओं ने राजा को वीर और पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया।साथ ही यह भी भविष्यवाणी की कि 20 सालों तक उसे उत्तर दिशा में जाने से रोकना होगा। राजा के यहां पर पुत्र का जन्म हुआ उसका धूमधाम से नामकरण संस्कार करवाया और नाम रखा सुजान कंवर। सुजान कंवर कुछ ही दिनों में वीर, तेजस्वी और समस्त विद्याओं में निपुण हो गया।
कुछ दिनों के पश्चात उस शहर में जैन मुनि का आगमन हुआ। उनके सत्संग से सुजान कंवर बहुत प्रभावित हुआ। उसने प्रभावित होकर जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण कर ली औऱ धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। धीरे-धीरे राज्य के लोगों की जैन धर्म में आस्था बढ़ने लगी।
एक दिन राजकुमार शिकार खेलने के लिए जंगल में में गए और अचानक ही राजकुमार उत्तर दिशा की ओर जाने लगे। सैनिकों के मना करने के बावजूद वह नहीं माना। उत्तर दिशा में सूर्य कुंड के पास ऋषि-मुनि यज्ञ कर रहे थे। यह देख राजकुमार अत्यंत क्रोधित हुए और बोले- ‘मुझे अंधरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने दिया गया’ और उन्होंने सभी सैनिकों को भेजकर यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करवाया।
इस वजह से ऋषियों ने क्रोधित होकर उन सभी को श्राप दिया और वे सब पत्थर बन गए। राजा ने यह समाचार सुनते ही प्राण त्याग दिए और उनकी रानियां सती हो गईं। राजकुमार सुजान की पत्नी चन्द्रावती सभी सैनिकों की पत्नियों को लेकर ऋषियों के पास गईं और उनसे क्षमा-याचना करने लगीं। ऋषियों ने कहा कि हमारा श्राप कभी विफल नहीं हो सकता, पर उपाय के तौर पर भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती की आराधना करो।
सभी महिलाओं ने श्रद्धा के साथ महादेव और देवी पार्वती की आराधना की और उनसे अखंड सौभाग्यवती और पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। उसके बाद सभी ने चन्द्रावती के साथ मिलकर 72 सैनिकों को जीवित करने की प्रार्थना की। भगवान महेश उनकी पत्नियों की पूजा से प्रसन्न हुए और सबको जीवनदान दे दिया। भोलेनाथ की आज्ञा से इस समाज के पूर्वजों ने क्षत्रिय कर्म छोड़कर वैश्य धर्म को अपना लिया। इसलिए आज भी इस समाज को ‘माहेश्वरी समाज’ के नाम से जाना जाता है।